वैश्वानर यज्ञ: भोजन को दिव्य यज्ञ में रूपांतरित करने की उपनिषदीय विधि
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यहाँ प्रस्तुत मूल संक्षिप्त श्लोकात्मक भाव को ध्यान में रखते हुए, हम छान्दोग्य उपनिषद् के पाँचवें अध्याय की वैश्वानर-विद्या के विषय को एक विस्तृत शैली में प्रस्तुत कर रहे हैं
॥ श्रीहरिः ॥
भारतीय वैदिक परंपरा में भोजन केवल शरीर की क्षुधा शांत करने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक गूढ़ आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। छान्दोग्य उपनिषद् (पंचम अध्याय, खण्ड १९ से २४) में वर्णित वैश्वानर-विद्या एक अत्यंत मार्मिक शिक्षाप्रणाली है, जिसके माध्यम से एक सामान्य गृहस्थ भी अपने भोजन को दैविक यज्ञ का स्वरूप प्रदान कर सकता है।
यह विधि विशेषत: बताती है कि किस प्रकार से हम प्रतिदिन के भोजन को एक नित्य यज्ञ के रूप में सम्पन्न कर सकते हैं। मात्र पाँच ग्रास भोजन लेते हुए, यदि साधक अपने चित्त को शान्त रखकर इन वैदिक मन्त्रों के साथ ग्रहण करे, तो न केवल शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है, बल्कि वह प्रतिदिन एक यज्ञ का पुण्यफल भी अर्जित करता है।
❖ प्रथम ग्रास – प्राणाय स्वाहा
भोजन का प्रथम ग्रास ग्रहण करते समय “प्राणाय स्वाहा” का उच्चारण करें। यह ग्रास प्राण वायु को अर्पित होता है। इस क्रिया से हमारी नेत्रेन्द्रिय तृप्त होती है। यह सूर्य और द्युलोक (स्वर्गलोक) को आलोकित करता है। इसके प्रभाव से आँखों की ज्योति एवं दृष्टि में दिव्यता आती है और चेतना उच्चतर स्तर पर जाती है।
❖ द्वितीय ग्रास – व्यानाय स्वाहा
दूसरा ग्रास “व्यानाय स्वाहा” कहते हुए ग्रहण करें। यह श्रवणेन्द्रिय (कान) की तृप्ति का कारक है और चन्द्रमा तथा दिशाओं को प्रकाशित करता है। चन्द्रमा मन का प्रतीक है, अतः यह मन को शीतलता, संतुलन व श्रवण शक्ति प्रदान करता है।
❖ तृतीय ग्रास – अपानाय स्वाहा
तीसरे ग्रास के साथ “अपानाय स्वाहा” का उच्चारण करें। यह ग्रास वाक्-इन्द्रिय को पुष्ट करता है, और अग्नि तथा पृथ्वी तत्त्वों को आलोकित करता है। वाणी में तेज और स्थिरता आती है, तथा पाचन अग्नि सशक्त होती है, जिससे स्थूल शरीर और स्थिर बुद्धि का निर्माण होता है।
❖ चतुर्थ ग्रास – समानाय स्वाहा
चौथा ग्रास “समानाय स्वाहा” कहते हुए ग्रहण करें। यह मन इन्द्रिय को संतुलित करता है और पर्जन्य (वर्षा) तथा विद्युत् (ऊर्जा) तत्त्वों को प्रकाशित करता है। यह क्रिया मानसिक स्थिरता और आंतरिक ऊर्जा के समन्वय को प्रोत्साहित करती है।
❖ पंचम ग्रास – उदानाय स्वाहा
पाँचवा और अन्तिम ग्रास “उदानाय स्वाहा” कहते हुए लेना चाहिए। यह त्वचा इन्द्रिय (स्पर्श शक्ति) को दीप्त करता है और वायु एवं आकाश तत्त्वों को आलोकित करता है। इससे हमारे शरीर में सूक्ष्म संवेदनशीलता जागृत होती है तथा चेतना ऊर्ध्वगामी बनती है।
✧ निष्कर्ष ✧
इस प्रकार, वैश्वानर-विद्या का अभ्यास न केवल भोजन को यज्ञ बना देता है, अपितु यह जीव को पाँच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) तथा पाँच प्रमुख प्राणों (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान) के साथ संतुलन में स्थापित करता है। इससे शरीर-मन-आत्मा की त्रिवेणी एक समरस अनुभूति में विलीन हो जाती है।
प्रतिदिन मात्र पाँच मिनट इस उपनिषदीय विधि के अनुसार भोजन करने से साधारण गृहस्थ भी अपने जीवन को तपस्वी की गरिमा प्रदान कर सकता है। यह विधि भोजन को अध्यात्म का साधन बनाती है और व्यक्ति में कृतज्ञता, संयम, शुचिता और भगवद्भाव का संचार करती है।
अतः कह सकते हैं — जब भोजन यज्ञ बन जाये, तब जीवन स्वयं ब्रह्ममय हो जाता है।
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