Vedantic Exploration of Brahma’s Creation and the Illusory World
Published on in Vedic Spiritual Insights
यह लेख वेदांत दर्शन, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, तथा विभिन्न टीकाकारों (शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि) के दृष्टिकोण से गहराई में उतरते हुए इन 10 गूढ़ प्रश्नों का विवेचन करता है। यह चर्चा विशेषतः अद्वैत वेदांत और ब्रह्म–जीव–जगत संबंध के शास्त्रीय विवेचन पर आधारित है।
✦ विषय: ब्रह्मा की सृष्टि और मायाजाल — एक वेदांत-दृष्टि से विवेचन ✦
प्रश्न 1
ब्रह्मा को ऐसा दुःखमय संसार रचने की इच्छा क्यों होती है, और फिर उससे मुक्ति के लिए उपदेश क्यों करवाते हैं?
उत्तर:
ब्रह्मा स्वयं परमब्रह्म नहीं, बल्कि परमब्रह्म का सगुण, कार्य-रूप प्राकट्य हैं। वे सृष्टिकर्ता हैं, परन्तु वे 'कर्त्ता' नहीं अपितु 'नियुक्त कर्ता' हैं। ब्रह्मा की सृष्टि की प्रेरणा ब्रह्मस्वरूप ईश्वर से आती है, जो कर्मानुसार जीवों के लिए सृष्टि रचता है।
सृष्टि की रचना जीवों के पूर्ववर्त्ती कर्मों के अनुसार होती है, और इसी कारण यह संसार दुःखमय प्रतीत होता है। भगवान स्वयं गीता में कहते हैं:
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन" (गीता 2.45)
अर्थात यह जगत त्रिगुणात्मक है — रजस्, तमस् और सत्त्व के प्रभाव से उपजा हुआ।
इसलिए वेद-श्रुति और स्मृति के द्वारा उपदेश देना स्वयं ईश्वर की अनुग्रहात्मक कृपा है, जिससे जीव अपने भ्रम से बाहर निकल सके।
प्रश्न 2
यदि जगत मिथ्या है और केवल ब्रह्म ही सत्य है, तो यह भ्रम फैलाया क्यों गया? और ब्रह्म में भ्रम कैसे हो सकता है?
उत्तर:
अद्वैत वेदांत में स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्म निर्दोष, निर्विकार, निर्व्याज है। भ्रम ब्रह्म में नहीं, बल्कि जीव के उपाधि (अविद्या) में है।
मायोपाधिक जीव ही भ्रम का अनुभव करता है, ब्रह्म नहीं। यह भ्रम — यह 'अज्ञान' — अनादि है, परंतु अनन्त नहीं। शंकराचार्य कहते हैं:
"मिथ्याज्ञाननिवृत्त्यर्थं श्रुतयः प्रवर्तन्ते"
अर्थात श्रुतियाँ इस मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति के लिए हैं।
अतः भ्रम ब्रह्म में नहीं, बल्कि जीव की दृष्टि में है जो अविद्या से ग्रस्त है।
प्रश्न 3
यदि अविद्या से जगत की रचना होती है और अविद्या ब्रह्म से भिन्न है, तो छुटकारा कैसे संभव है?
उत्तर:
यहाँ अविद्या को ब्रह्म की शक्ति माना गया है, जिसे 'माया' कहते हैं — न सत्त्वं, न असत्त्वं, न उभयात्मकम्। यह एक अद्भुत शक्ति है जो न तो पूर्ण रूप से वास्तविक है, न ही पूर्ण रूप से असत्य।
छुटकारा ज्ञान द्वारा होता है, जैसे सर्प–रस्सी का ज्ञान सर्प के भ्रम को मिटा देता है।
ब्रह्म के निकट जाने का एकमात्र उपाय है ब्रह्मविचार और ज्ञानप्राप्ति:
"तं त्वेवं ज्ञात्वा अमृत इह भवति" (केनोपनिषद् 2.4)
— “उसे इस प्रकार जान कर मनुष्य इस जीवन में ही अमरत्व प्राप्त करता है।”
प्रश्न 4
यदि सब साधन (श्रुति-स्मृति आदि) भी अविद्या के अधीन हैं, तो विद्या और ज्ञान कहाँ से लाया जाये?
उत्तर:
यह शंका अद्वैत वेदांत की एक महत्वपूर्ण दार्शनिक परीक्षा है।
शास्त्र कहते हैं कि श्रुति ‘अपौरुषेय’ है, वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। यद्यपि वह व्यवहार में ‘माया के अधीन’ प्रतीत होती है, परन्तु उसका प्रयोजन माया की निवृत्ति है।
इसलिए, शास्त्र स्वयं को पार करने का ‘नौका’ है — जैसे गीता में कहा:
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" (गीता 18.66)
श्रुति–स्मृति व्यवहार में दिखाई देने वाली अविद्या के अधीन हैं, परंतु उनका लक्ष्य विद्या प्राप्त करना है। जैसे नीरोग होने की औषधि रोग के कारण बनी हो परंतु उसका उद्देश्य रोग का नाश करना ही है।
प्रश्न 5
सर्वज्ञ ब्रह्म की शक्ति माया या अविद्या क्यों होनी चाहिये? क्या यह विद्या और सत्यज्ञान नहीं होना चाहिए?
उत्तर:
ब्रह्म की दो प्रकार की शक्तियाँ मानी जाती हैं:
-
विद्या शक्ति – ब्रह्म के पारमार्थिक स्वरूप को प्रकट करती है।
-
अविद्या शक्ति (माया) – ब्रह्म के व्यवहारिक और लौकिक स्वरूप को प्रकट करती है।
शंकराचार्य के अनुसार माया अनिरवचनीय है। ब्रह्म स्वभाव से केवल विद्यात्मक है, परंतु जब ब्रह्म की दृष्टि उपाधियों से युक्त होती है, तब माया द्वारा ब्रह्म 'सृष्टिकर्ता' रूप में प्रकट होता है।
मूल ब्रह्म अविद्या से रहित है, परंतु माया उसकी व्यवहारात्मक शक्ति है।
प्रश्न 6
यदि संसार की रचना की इच्छा हो, तो वह सत्य ज्ञान से होनी चाहिए, माया और अविद्या से क्यों?
उत्तर:
यहाँ 'इच्छा' की कल्पना करना भी एक उपाधि आधारित कल्पना है।
सत्य ब्रह्म में इच्छा नहीं है — वह निष्क्रिय, अक्रिय, अपेक्षारहित है। परंतु ईश्वर रूप में वही ब्रह्म इच्छा करता है:
"स एवाहं नाम अभवम्।" – बृहदारण्यक उपनिषद्
यह ईश्वर की इच्छा ब्रह्म के उपाधिरूप 'माया' के द्वारा ही कार्यान्वित होती है। इसीलिए रचना भी माया से होती है, न कि शुद्ध ब्रह्मज्ञान से।
प्रश्न 7
आप्तकाम ब्रह्म को इस मायाजाल को फैलाने में क्या प्रयोजन है?
उत्तर:
शुद्ध ब्रह्म 'आप्तकाम' है — उसे किसी भोग, सृष्टि या अनुभव की आवश्यकता नहीं है। वह पूर्ण है:
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते" (ईशावास्य उपनिषद्)
माया से युक्त ब्रह्म अर्थात ईश्वर ही इस जगत की रचना करता है। वह भी केवल जीवों के कर्मानुसार फल देने हेतु। स्वयं के लिये नहीं।
प्रयोजन ब्रह्म का नहीं, जीव का है। ब्रह्म केवल ‘निमित्त’ हैं।
प्रश्न 8
यदि ब्रह्म अपनी महिमा दिखाने के लिये यह करता है, तो वह किसे दिखाना चाहता है जब कि एक ब्रह्म के सिवा कोई नहीं?
उत्तर:
यह शंका अद्वैत की द्वैताभासात्मक स्थिति में आती है। अद्वैत वेदांत कहता है — "नेह नानास्ति किंचन" — केवल ब्रह्म ही है।
परंतु माया से ग्रस्त जीव जब संसार के रूप में ब्रह्म को देखता है, तब ब्रह्म की महिमा और लीला प्रकट होती है। यह केवल अभिव्यक्ति है, किसी प्रदर्शन की इच्छा नहीं।
‘महिमा’ कोई दिखाने के लिये नहीं, बल्कि जीवों के कल्याणार्थ प्रकट होती है।
प्रश्न 9
यदि प्रभुता दिखाने की इच्छा है तो वह इच्छा ही अपूर्णता दर्शाती है?
उत्तर:
सत्य। यही कारण है कि अद्वैत वेदांत में यह इच्छा ब्रह्म की नहीं, बल्कि मायोपाधि से युक्त ईश्वर की मानी जाती है।
ब्रह्म में इच्छा का अंश भी नहीं है। गीता में स्पष्ट है:
"न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा" (गीता 4.14)
इसलिए रचना की इच्छा को 'ब्रह्म का धर्म' नहीं, अपितु माया की प्रेरणा से उत्पन्न सृष्टिक्रम का अंग मानना चाहिए।
प्रश्न 10
क्या संसार की रचना जीवों के भोग और अपवर्ग (मोक्ष) के लिये स्वाभाविक मानी जाए?
उत्तर:
हाँ। यह ही शास्त्रसम्मत निष्कर्ष है।
-
भोग – जीवों को उनके संचित कर्मों का फल देना।
-
अपवर्ग – अंततः आत्मज्ञान द्वारा मोक्ष प्रदान करना।
"लोकेस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ" (गीता 3.3)
ब्रह्मा के द्वारा रचित संसार नित्य नहीं, केवल कार्य हेतु उपस्थापित है। इसका उद्देश्य केवल जीवों के कल्याण के दो रूप हैं: भोग और मोक्ष।
🔚 निष्कर्ष:
यह संसार, इसकी रचना, इसका दुःख, और इससे मुक्ति – सब ब्रह्म के अधीन एक लीला के रूप में हैं, जो कि माया की प्रेरणा से व्यवहारिक दृष्टि से ही समझे जा सकते हैं। पारमार्थिक रूप में केवल ब्रह्म ही सत्य है — जो न जन्मता है, न मरता है, न रचता है।
📚 शास्त्र सन्दर्भ:
-
ब्रह्मसूत्र: "जन्माद्यस्य यतः"
-
माण्डूक्यकारिका (गौड़पादाचार्य)
-
गीता अध्याय 2, 4, 13
-
बृहदारण्यक उपनिषद
-
ईशावास्य उपनिषद
-
विवेकचूडामणि (आदि शंकराचार्य)
Recent Articles
- Venus Transit in Libra 2025: Vedic Astrology Predictions for All Moon Signs
- Venus's Transit of the Fixed Star Spica : 31st October 2025 : Lucky and Auspicious
- Mars Transit in Scorpio 2025 : Emotional Power & Spiritual Awakening
- The Five Sacred Days of Diwali: Mantras and Rituals from Dhanteras to Bhai Dooj
- Diwali 2025 Lakshmi Puja Muhurat | Best Timings & Vastu Directions for Homes and Businesses