सच्चा ज्ञान आत्मबोध से ही संभव है
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सच्चा ज्ञान आत्मबोध से ही संभव है
मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य है—परम सत्य की प्राप्ति। यह परम सत्य, जिसे वेदांत ‘ब्रह्म’ के रूप में परिभाषित करता है, हमारी इंद्रियों और मन-बुद्धि की पहुँच से परे, अतीन्द्रिय और अज्ञेय तत्त्व है। यह साक्षात सत्य न तो देखे जा सकने वाला है, न ही किसी रूप में सीमित। हमारा लौकिक जगत नश्वर है, और समस्त अनुभव इंद्रियगोचर हैं; परंतु ब्रह्म—जिसे हम परमात्मा, चैतन्य या आत्मा भी कहते हैं—इन सबसे भिन्न, सनातन और शुद्ध सत्ता है।
आश्चर्य की बात यह है कि यह अतीन्द्रिय तत्त्व, जिसे सामान्य तर्क-बुद्धि नहीं समझ सकती, वही परमात्मा जानने योग्य भी है। लेकिन यह जानना किसी बौद्धिक प्रक्रिया का फल नहीं, बल्कि *साक्षात् ब्रह्मानुभूति* का विषय है।
वेदांत का स्पष्ट कथन है: ब्रह्म सीमित नहीं है, इंद्रियगम्य नहीं है और न ही कोई ऐसा रूप है जिसे प्रत्यक्ष देखा जा सके। जब साधक आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त करता है और ब्रह्म में स्थित होता है, तब उसके भीतर से अविद्या, राग-द्वेष, अहंकार और अस्मिता जैसे समस्त मानसिक विकार स्वाभाविक रूप से विलीन हो जाते हैं। वह "शुद्ध साक्षी" के रूप में स्थित हो जाता है—जो देखता है, परंतु लिप्त नहीं होता।
इस अवस्था में साधक केवल संसार के सुख-दुःखों से विरक्त नहीं होता, बल्कि आत्म-तृप्ति के परम शिखर को प्राप्त करता है। वह अनुभव करता है— "अहं ब्रह्मास्मि", अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ। इस आत्मबोध के साथ ही उसका समस्त अस्तित्व एक दिव्य प्रकाश के रूप में प्रकट होता है।
वेदांत का यह ज्ञान केवल दार्शनिक चिंतन नहीं, अपितु अत्यंत व्यावहारिक शिक्षण है। यह मनुष्य को उसकी वास्तविक पहचान कराता है, जीवन को उद्देश्य देता है, और आत्म-सत्ता के बोध से युक्त करता है। यह न केवल विचार देता है, बल्कि जीवन जीने की दिशा भी देता है।
इस महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सत्संग, स्वाध्याय, विवेक, वैराग्य और सबसे महत्वपूर्ण, *ब्रह्मनिष्ठ गुरु की कृपा* का आश्रय लेना आवश्यक है। गुरु ही वह दिव्य शक्ति है जो आत्मा के अंधकार को मिटाकर आत्मबोध की ज्योति प्रज्वलित करता है।
यद्यपि यह अवस्था दुर्लभ है, किंतु यही जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है।
वेदांत का सार यही है:
“सच्चा ज्ञान आत्मबोध से ही संभव है। और आत्मबोध का मार्ग गुरु-कृपा, विवेक, वैराग्य तथा निरंतर साधना से होकर ही जाता है।”
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